अशोक वानखेड़े
नई दिल्ली। राजस्थानी परिवार में पैदा हुए मेरे मित्र कल्पेश याग्निक का और मेरा संबंध तो इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज से था. वह अजय राठौर के साथी थे. ललित पोरवाल मेरे नेता थे. छात्र राजनीति छोड़ मैंने इंदौर से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी अखबार फ्री प्रेस में बतौर ट्रेनी जर्नलिस्ट ज्वाइन किया. कुछ समय बाद छात्र राजनीति छोड़ कल्पेश भी फ्री प्रेस में बतौर स्ट्रिंगर यूनिवर्सिटी रिपोर्टिंग करने लगे. उन दिनों मैं फ्री प्रेस में मैं बिजनेस एडिटर हुआ करता था हर शाम कल्पेश ऑफिस आते मेरे ही सामने मेरे टेबल पर अपनी कॉपी लिखना शुरु करते. वह मेरे सामने आते ही अपने धीर-गंभीर आवाज में कहते ‘नाना, शक्तिशाली नाना’ फिर स्टोरी के बारे में बताते और लिखना शुरु करते. शाम को आने वाले कल्पेश देर रात तक फ्री प्रेस रुकते. हम सभी के साथ रात की शिफ्ट खत्म होने पर घर जाते. उस समय फ्री प्रेस में लिखे जाने वाली कई राजनीतिक खबरों में उनका योगदान होता था. जब मैंने इंदौर छोड़ा उस दिन उन्होंने मुझे एक पर्चा थमाया. उसमें उनके हाथों की लिखी हुई एक छोटी कविता थी. उसका आशय था आप इंदौर छोड़ रहे वह तरक्की के लिए क्योंकि पानी भी एक जगह जमा होता है तो काई पैदा होती है. सिकंदर भी एक ही जगह रूका होता शायद विश्व को नहीं जीत पाता. आज कल्पेश हमें छोड़ कर चले गए. उनका पत्रकारिता का सफर शानदार रहा. स्ट्रिंगर से लेकर देश के सबसे बड़े अखबार का नेशनल एडिटर होना अपने आप में एक दिलचस्प कहानी है. निजी तौर पर मैंने एक सखा खोया. बस बाकी शेष है उनकी स्मृतियां और वह लिखी हुई कविता जो कहती है एक जगह रुकना नहीं चाहिए निरंतर आगे बढ़ना चाहिए. मैं एक सनातनी हिंदू हूं और पुनर्जन्म में विश्वास रखता हूं. जो उन्होंने मेरे लिए 29 साल पहले कहा था शायद अब वह स्वयं एक लंबी यात्रा के लिए निकल चुके. तुम्हारे नए जीवन के लिए म�